‘कितना अच्छा होता अगर एसिड बिकता ही नहीं, मिलता ही नहीं तो फिकता नहीं’…वैसे तो ये महज एक फिल्म का डायलॉग है किंतु किसी एसिड अटैक से पीड़ित व्यक्ति के मन से पूछा जाए तो यह उसके लिए बेहद अहमियत रखता है।
जब किसी व्यक्ति को मार दिया जाता है तो इससे उसकी पूरी जिंदगी खत्म की जा सकती है या फिर उसके हाथ-पांव काट देने से उसको अपंग किया जा सकता है। लेकिन अगर किसी पर तेजाब डाल दिया जाए तो वह इंसान ना तो मर पाता है ना ही खुशी से जी पाता है। तेजाब फेंके जाने से बदसूरत हुए चेहरे और जिंदगियों को हमारा समाज ही सर उठाकर जीने की इजाजत नहीं देता। समाज के लिए ऐसे चेहरे एक श्राप की तरह होते हैं। जिससे पीड़ित व्यक्ति को डर, घुटन और भेदभाव की जिंदगी का सामना करना पड़ता है। ऐसे में इंसान अंदर तक टूट जाता है और यह तेजाब सिर्फ चेहरा नहीं आत्मा को भी जलाने लगता है।
तेजाब से बर्बाद और बिखरने वाली कहानियों की लिस्ट बहुत लंबी है। भारत में हर महीने हमें कोई न कोई ऐसी खबरें सुनने को मिल ही जाती हैं जहाँ महिलाओं पर तेजाब फेंकने से संबंधित घटना घटित होती है। यह सभी कहानियां भारतीय समाज के उस घिनोने चेहरे को दर्शाती हैं जहाँ महिलाएं अपने अस्तित्व, अपनी पहचान के सबसे अहम हिस्से को बर्बाद हुआ पाती हैं। उनकी इस दर्दनाक कहानी को बयां करने या समझने वाला तक कोई नहीं होता। कभी कभी तो खुद के घरवाले ही पीड़ितों का साथ छोड़ देते हैं। ऐसी सूरत में महिलाओं के लिए अपने वजूद को बचा पाना नामुमकिन सा होता है।
तेजाब से बिगड़ने वाली जिंदगियां बड़ी मुश्किल से संवर पाती हैं। न जाने कितनी ही बार पीड़िता अपना आत्मविश्वास खो बैठती हैं। ऊपर से समाज और घरवालों का साथ ना मिलने पर वह पूरी तरह से टूट जाती हैं । उनका आने वाला भविष्य उन्हें अंधेरे से भरा हुआ दिखाई देता है। भविष्य में कोई उनका साथ दे या सहारा बने इस उम्मीद की किरण तक उन्हें नहीं दिखाई देती है।
भारतीय फिल्म जगत और सोशल मीडिया
एक तरफ जहां हमारा बॉलीवुड जगत समय-समय पर महिलाओं के मान सम्मान की रक्षा तथा आत्म सुरक्षा एवं उनके साहस को प्रदर्शित करने के लिए फिल्मों का निर्माण करता रहता है। वहीं दूसरी ओर इन्हीं फिल्मों के माध्यम से कुछ असामाजिक तत्वों को अमानवीय कार्य करने का हौसला भी मिलता है। उदाहरण के लिए एक तरफ जहां छपाक फिल्म एसिड अटैक को रोकने और उनके लिए सख्त कानून बनाने को महत्व देती है वहीं दूसरी तरफ गंगाजल मूवी में अपराधियों को सजा देने के लिए तेजाब का प्रयोग होता दिखाई देता है।
साथ ही आज के चकाचौंध और फॉलोवर्स की चाह से भरा हमारा सोशल मीडिया भी ऐसी वीडियो, जहाँ बात न मानने या मना करने की सजा लड़की पर तेजाब डालकर दी जाती है का प्रचलन काफी देखने को मिलता है। हालांकि इन वीडियो को बनाने के पीछे लोगों की मंशा एसिड अटैक को बढ़ावा देने की नहीं होती है, लेकिन फिर भी कुछ बीमार मानसिकता वाले लोगों के मस्तिष्क पर ये बातें असर करती हैं और उन्हें बढ़ावा मिलता है।
टिकटॉक स्टार फैजल सिद्दीकी कुछ दिनों पहले अपने एक वीडियो को लेकर विवाद में थे। दरअसल, फैजल सिद्दीकी पर एसिड अटैक को बढ़ावा देने का आरोप था। उन्होंने एसिड अटैक से जुड़ा एक वीडियो सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म पर पोस्ट किया था। हालांकि बाद में उस अकाउंट को बैन कर दिया गया। वीडियो द्वारा उन्होंने कई सामुदायिक दिशा निर्देशों का उल्लंघन किया था। लेकिन लाखों फॉलोवर्स ने वह वीडियो देखा था और कहींं ना कहीं उसका असर उन लोगों के मन मस्तिष्क पर अवश्य पड़ा होगा।
आंकड़ों पर नज़र
हालांकि अपने देश में तेजाब हमलों से पीडि़त महिलाओं के अधिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, पर अखबारों में ऐसी खबरें अकसर पढ़ने को मिलती हैं। ऐसी घटनाओं के बढ़ने के पीछे एक खास कारण यह है कि महिलाओं के विरोध इस हिंसा एवं इस क्रूर अपराध के खिलाफ अलग से किसी सख्त कानून का अस्तित्व में नहीं होना भी है।
भारत में वर्ष 2014 में 203 एसिड अटैक की घटनाएं हुई थीं जो अगले साल यानी 2015 में बढ़ कर 222 तक पहुंच गई। इसी तरह 2016 में ऐसे 283 मामले दर्ज किए गए।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) की ताज़ा रिपोर्ट से पता चलता है कि ऐसी घटनाएं कम होने की बजाय लगातार बढ़ी है। पश्चिम बंगाल एसिड हमलों के मामले में पूरे देश में पहले स्थान पर है। वर्ष 2016 में भी बंगाल पहले स्थान पर था। उस साल राज्य में ऐसी 83 घटनाएं हुई थीं।
एनसीआरबी के आंकड़े इन दलीलों की पुष्टि करते हैंकि वर्ष 2016 में दर्ज ऐसे 203 मामलों में से महज़ 11 में ही अभियुक्तों को सज़ा मिली थी।
वर्ष 2017 में ऐसे मामलों में कुछ कमी आई और कुल 54 मामले दर्ज हुए। लेकिन इस साल 53 मामलों के साथ बंगाल ने एक बार फिर उत्तर प्रदेश को पीछे छोड़ दिया। उत्तर प्रदेश में उस वर्ष ऐसे 43 मामले दर्ज हुए।
वर्ष 2017 में घटकर 252 और 2018 में ऐसे 228 मामले दर्ज हुए हैं। लेकिन एसिड अटैक सर्वाइवर्स के रेहैबिटेशन के लिए काम करने वाले संगठनों का दावा है कि यह आकड़े असली घटनाओं के मुकाबले बहुत कम है।
नेशनल क्राइम ब्यूरो (NCRB) के 2018 के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि एसिड अटैक के मामले लगातार साल दर साल पुलिस की फाइलों में ट्रांसफर होते या बैठते जा रहे हैं। इन आंकड़ों द्वारा यह दिखाया गया है कि; भारतीय न्यायालयों में 2018 में 523 मुकदमे दायर किए गए, जो 2016 में 407 और 2017 में 442 दर्ज मुकदमे थे। न्याय प्रणाली कितनी धीमी है इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
यदि वास्तविकता पर गौर करें तो एसिड अटैक के कई मामले ऐसे भी हैं जो कभी दर्ज ही नहीं होते हैं, क्योंकि इन मामलों में न्यायपालिका के बाहर समझौता होता है। कई अन्य बाहरी कारक जैसे जाति, वर्ग, सत्ता ऐसे मामलों को दर्ज करते समय बीच में आते हैं और मामला कभी दर्ज ही नहीं हो पाता।
अदालत द्वारा वर्ष 2016 में 6.6 प्रतिशत (407 में से 27 मामले) मुकदमे निपटाये गए थे। 2017 में इन आंकड़ो में हल्की वृद्धि हुई जो 9.9 प्रतिशत ( 442 मामलों में से 44) थी। लेकिन, 2018 में, यह फिर से घटकर 6.11 प्रतिशत मामलों (523 में से 32 मामलों) में आ गया, यह दर्शाता है कि प्रणाली मामले में त्वरित न्याय प्रदान करने में असमर्थ है।
सरकार, कानून व्यवस्था और नियम
एसिड या तेजाब से हमला होने पर भारत में कोई सशक्त कानून नहीं है। हालांकि ऐसे अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 329, 322 और 325 के तहत दर्ज होते हैं। लेकिन इसके अलावा पीड़ितों के इलाज, पुनर्वास और काउंसलिंग के लिए भी सरकार की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि ऐसे हादसों में पीडित को अत्यधिक क्षति उठानी पड़ती है। इन हादसों का मन-मस्तिष्क पर लंबे समय तक विपरीत प्रभाव बना रहता है ऐसे में एसिड अटैक से प्रभावित महिला को ना तो हमारा समाज ना हमारी न्याय व्यवस्था कोई ठोस समाधान दिला पाते हैं। अंततः पीड़िता शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्णत है टूट जाती है।
सरकार ने अभी भी तेजाब पीड़ितों के लिए कोई खास कानून नहीं बनाया है। जिसकी वजह से ना जाने हमारे समाज में कितनी महिलाएं पीडित हैं। भारत के लाचार कानूनों में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जो तेजाब से पीड़ित महिलाओं को न्याय दिला सके। और जो कानून हैं वह बहुत ही सीमित हैं जिससे अपराधी आराम से निकल जाते हैं।
वैसे तो हम महिलाओं के साथ होने वाली दुर्घटनाओं को महिलाओं पर अत्याचार, महिलाओं का शोषण, महिलाओं का क़त्ले आदि शब्दों के साथ बढ़ा चढ़ा कर जनता के समक्ष पेश करते हैं। किंतु ये सभी शब्द आम, कमतर और छोटे नज़र आते हैं, एक एसिड अटैक शिकार महिला के दर्द के आगे। महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से तकलीफें देना पुराने समय से ही हमारी कुंठित पितृस्त्तात्मक सभ्यता में देखने को मिलता है। यह कोई नई बात नहीं है, हमारा पितृसत्तात्मक समाज अपनी जड़े मजबूत करने की कोशिश करता है तब तब वह समाज के कमजोर वर्गों को कु चलने की कोशिश भी करता है जिसमें कहीं ना कहीं हमारे समाज की महिलाएं भी शामिल है। ऐसे में हमारा फर्ज बनता है की हम महिलाओं की सुरक्षा हेतू स्वयं से पहल करें और दूसरों को भी जागरुक करें।
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